चाणक्य नीति पांचवा अध्याय | Chanakya Niti Fifth Chapter

चाणक्य नीति पांचवा अध्याय

Chanakya Niti Fifth Chapter

1.
गुरुरग्निर्द्वि जातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः ।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यागतो गुरुः ।।१।।
अर्थ: - ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, इन तीनो वर्णों का गुरु अग्नि है । ब्राह्मण अपने अतिरिक्त सभी वर्णों का गुरु है । स्त्रियों का गुरु पति है । घर में आये हुए अथिति सभी का गुरु होता है ।
2.
यथा चतुर्भिः कनकं पराक्ष्यते निघर्षणं छेदनतापताडनैः ।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्य़ते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा ।।२।।
अर्थ: - जिस प्रकार स्वर्ण की गुणवत्ता की परीक्षा करने के लिये चार विधियां (1) कसौटी पर रगडना (2) काटना (3) आग पर तपाना तथा (4) हथौडी से पीटना हैं, उसी प्रकार एक पुरुष की परीक्षा भी चार प्रकार से (1) उसके अन्दर त्याग की की भावना (2) उत्तम चरित्र (3) गुणों तथा (4) उसके द्वारा किये गये शुभ कर्मों के द्वारा की जाती है
3.
तावद्भयेन भेतव्यं यावद् भयमनागतम् ।
आगतं तु भयं वीक्ष्यं प्रहर्तव्यमशंकया ।।३।।
अर्थ: - आपत्तियों और संकटों से तभी तक डरना चाहिए जब तक वे दूर हैं, परन्तु वह संकट सिर पर आ जय तो उस पर शंकारहित होकर प्रहार करना चाहिए और उन्हें दूर करने का उपाय करना चाहिए ।
4.
एकोदरसमुद् भूता एकनक्षत्रजातकाः ।
न भवन्ति समाः शीला यथा बदरिकण्टकाः ।।४।।
अर्थ: - एक ही उदार से, एक ही नक्षत्र में जन्म लेने पर भी दो लोगों का स्वभाव एक समान नहीं होता । उदाहरण के लिए बेर और काँटों को देखा जा सकता है ।
5.
निःस्पृहो नाधिकारी स्यान्नाकामो मण्डनप्रियः ।
नाऽविदग्धः प्रियंब्रूयात् स्पष्टवक्ता न वञ्चकः ।।५।।
अर्थ: - निस्पृह (निर्लोभ, इच्छारहित) मनुष्य कभी अधिकारी नहीं हो सकता। वासनारहित (वासना से शून्य) मनुष्य शृंगार का प्रेमी नहीं हो सकता। जड़ मनुष्य कभी मीठी वाणी नहीं बोल सकता और साफ़ - साफ़ बात करने वाला धोखेबाज नहीं होता।
6.
मूर्खाणां पण्डिता द्वेष्या अधनानां महाधनाः ।
वरांगना कुलस्त्रीणां सुभगानां च दुर्भगा ।।६।।
अर्थ: - मूढ़ लोग बुद्धिमानो से इर्ष्या करते है. गलत मार्ग पर चलने वाली औरत पवित्र स्त्री से इर्ष्या करती है. बदसूरत औरत खुबसूरत औरत से इर्ष्या करती है
7.
आलस्योपगता विद्या परहस्तगतं धनम् ।
अल्पबीजं हतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम् ।।७।।
अर्थ: - आलस्य से विद्या नष्ट हो जाती है । दूसरे के हाथ में धन जाने से धन नष्ट हो जाता है । कम बीज से खेत तथा बिना सेनापति वाली सेना नष्ट हो जाती है ।
8.
अभ्यासाध्दार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते ।
गुणेन ज्ञायते त्वार्यः कोपो नेत्रेण गम्यते ।।८।।
अर्थ: - अभ्यास से विद्या का, शील-स्वभाव से कुल का, गुणों से श्रेष्टता का तथा आँखों से क्रोध का पता लग जाता है ।
9.
वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते ।
मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया रक्ष्यते गृहम् ।।९।।
अर्थ: - धर्म की रक्षा धन के सदुपयोग से ही होती है तथा विद्या की रक्षा उसके सतत उपयोग से होती है | एक राजा (शासक) की रक्षा (सेवा) नम्रतापूर्वक करनी चाहिये तथा एक घर (परिवार) की रक्षा उस की साध्वी स्त्रियों के द्वारा ही होती है
10.
अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रमाचारमन्यथा ।
अन्यथा वदता शांतंलोकाःक्लिश्यन्ति चाऽन्यथा ।।१०।।
अर्थ: - वेद को, पाण्डित्य को, शास्त्र को, सदाचार को और शान्त मनुष्य को जो लोग बदनाम करना चाहते हैं, वे व्यर्थ कष्ट करते हैं।
11.
दारिद्र्यनाशनं दान शीलं दुर्गतिनाशनम् ।
अज्ञाननाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी ।।११।।
अर्थ: - दान दरिद्रता को नष्ट कर देता है । शील स्वभाव से दुःखों का नाश होता है । बुद्धि अज्ञान को नष्ट कर देती है तथा भावना से भय का नाश हो जाता है
12.
नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः ।
नास्ति कोपसमो वहि नर्नास्ति ज्ञानात्परं सुखम् ।।१२।।
अर्थ: - काम के समान व्याधि (रोग, पीड़ा) नहीं है, मोह और अज्ञान के समान कोई शत्रु नहीं है, क्रोध के समान कोई आग नहीं है तथा ज्ञान के समान कोई सुख नहीं है ।
13.
जन्ममृत्युं हि यात्येको भुनक्त्येकं: शुभाशुभम् ।
नरकेषु पतत्येक: एको याति परां गतिम् ।।१३।।
अर्थ: - व्यक्ति संसार में अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मृत्यु को प्राप्त करता है, अकेला ही शुभ-अशुभ कामों का भोग करता है, अकेला ही नरक में पड़ता है तथा अकेला ही परमगति को भी प्राप्त करता है ।
14.
तृणं ब्रह्मविदः स्वर्गस्तृणं शूरस्य जीवितम् ।
जिताक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत् ।।१४।।
अर्थ: - ब्रह्मज्ञानी को स्वर्ग, वीर को अपना जीवन, संयमी को अपना स्त्री तथा निस्पृह को सारा संसार तिनके के समान लगता है ।
15.
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च ।
व्यधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च ।।१५।।
अर्थ: - घर से बाहर विदेश में रहने पर विधा मित्र होती है , घर में पत्नी मित्र होती है , रोगी के लिए दवा मित्र होती है तथा मृत्यु के बाद व्यक्ति का धर्म ही उसका मित्र होता है |
16.
वृथा वृष्टिस्समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम् ।
वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपोऽदीवाऽपि च ।।१६।।
अर्थ: - समुद्र में होने वाली वर्षा व्यर्थ है । तृप्त (जिसका पेट भरा हुआ है) को भोजन करना व्यर्थ है । धनी को दान देना व्यर्थ है और दिन में दीपक व्यर्थ है ।
17.
नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम् ।
नास्तिचक्षुः समं तेजो नास्ति धान्यसमं प्रियम् ।।१७।।
अर्थ: - वर्षा के जल के समान कोई जल नहीं होता । अपने बल के समान कोई बल नहीं होता । आँखों के समान कोई ज्योति नहीं होती और अन्न के समान कोई प्रिय वस्तु नहीं होती
18.
अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदः ।
मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्तिदेवताः ।।१८।।
अर्थ: - निर्धन व्यक्ति धन की कामना करते हैं और चौपाये अर्थात पशु बोलने की शक्ति चाहते हैं । मनुष्य स्वर्ग की इच्छा करता है और स्वर्ग में रहने वाले देवता मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा करते हैं और इस प्रकार जो प्राप्त है सभी उससे आगे की कामना करते हैं ।
19.
स्त्येन धार्यते पृथ्वी स्त्येन तपते रविः ।
स्त्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ।।१९।।
अर्थ: - सत्य ही पृथ्वी को धारण करता है । सत्य से ही सूर्य तपता है । सत्य से ही वायु बहती है । सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित (स्थापित) है ।
20.
चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणश्चले जीवितमन्दिरे ।
चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ।।२०।।
अर्थ: - मानव द्वारा अर्जित धन-संपत्ति अस्थायी और नष्ट होने वाली होती है तथा उसके शरीर रूपी मन्दिर में स्थित प्राण शक्ति जो उसे जीवित रखती है, वह भी अस्थायी है ओर कभी भी नष्ट हो सकती है| यह सारा संसार ही अस्थायी है और अकेला धर्म (सद् आचरण और तत्सम्बन्धी नियमों का पालन करना) ही अपरिवर्तनीय है |
21.
नराणां नापितो धूर्तः पक्षिणां चैव वायसः ।
चतुष्पदां श्रृगालस्तु स्त्रीणां धुर्ता च मालिनी ।।२१।।
अर्थ: - पुरुषों में नाई धूर्त (चालाक) होता है और उसी प्रकार पक्षियों में कव्वा धूर्त होता है | चौपायों (प्राणीयो) में सियार (श्रगाल ) धूर्त होता है तथा स्त्रियों में मालिन (पुष्प और मालायें बेचने वाली ) धूर्त होती है |
22.
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति ।
अन्नदाता भयत्राता पञ्चैते पितरः स्मृताः ।।२२।।
अर्थ: - ये सब आपके पिता है: - 1. जिसने आपको जन्म दिया 2. जिसने आपका यज्ञोपवित संस्कार किया 3. जिसने आपको पढाया 4. जिसने आपको भोजन दिया 5. जिसने आपको भयपूर्ण परिस्थितियों में बचाया
23.
राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्र पत्नी तथैव च ।
पत्नी माता स्वमाता च पञ्चैता मातरः स्मृता ।।२३।।
अर्थ: - राजा की पत्नी, अपने गुरु की पत्नी, अपने मित्र की पत्नी, तथा उसी प्रकार अपनी पत्नी की माता (सास) और स्वयं अपनी माता, इन पांचों को सामाजिक मान्यता के अनुसार माता के समान ही सम्मान प्राप्त है

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