वीर तुम बढ़े चलो कविता | Veer Tum Badhe Chalo Poem

वीर तुम बढ़े चलो कविता - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

हाथ में ध्वजा रहे बाल दल सजा रहे 
ध्वज कभी झुके नहीं दल कभी रुके नहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

सामने पहाड़ हो सिंह की दहाड़ हो
तुम निडर डरो नहीं तुम निडर डटो वहीं
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

मेघ गरजते रहे मेघ बरसते रहे
बिजलियाँ कड़क उठे बिजलियाँ तड़क उठे
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

प्रात हो कि रात हो संग हो न साथ हो
सूर्य से बढ़े चलो चन्द्र से बढ़े चलो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

एक ध्वज लिये हुए एक प्रण किये हुए
मातृ भूमि के लिये पितृ भूमि के लिये
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!

अन्न भूमि में भरा वारि भूमि में भरा
यत्न कर निकाल लो रत्न भर निकाल लो
वीर तुम बढ़े चलो! धीर तुम बढ़े चलो!
वीर तुम बढ़े चलो - कविता | veer tum badhe chalo - poem

वीर तुम बढ़े चलो कविता का भावार्थ

भावार्थ: - यह एक 'प्रयाण' गीत है। कवि कहते है कि हे वीर, धीर! तुम आगे बढ़ो। हाथ में राष्ट्रीय ध्वज लेकर बिना रुके बढ़ते रहो। चाहे सामने पहाड़ हो या सिंह (शेर) गरज रहा हो, बिलकुल डरो नहीं, डटकर सामना करो और आगे बढ़ो। चाहे बादल गरज रहे हो, बिजलियाँ कड़क रही हों, सुबह हो या रात, कोई साथ में हो या न हो, सूर्य और चंद्रमा के समान आगे बढ़ते रहो। इसमें कवि ने पक्के इरादे के साथ आगे बढ़ने की बात की है। लगातार चलने से मुश्किल भी आसान हो जाती हैं।

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